Friday 11 July 2014

आवाज़ और भाषण

आवाज़ और भाषण में क्या फ़र्क है,इस फ़र्क को आप थोड़ा विस्तार बता सकते हैं । मैं आपके जवाब का इंतज़ार करूँगा । इस विषय पर मेरी और आपकी रोज़ बात-चीत होगी ।

Wednesday 22 August 2012

इस शहर की सड़कें…….

 

ये शहर

बड़ा अजीब है |

इस शहर की सड़के

दूसरे शहरों को तो जाती हैं

लेकिन

वहां नहीं जाती

जहाँ से मैंने चलना शुरू किया था|

 

इन सड़कों का

कच्चे रास्तों से कोई वास्ता नहीं|

 

ये सभी सड़कें

देश की राजधानी तक जाती हैं,

और बीमार देश का हाल

कुछ ऐसे बताती है 

जैसे गाँधी का हिन्द स्वराज आ गया हो |

जैसे धूमिल के तीन थके हुए रंगों में जान आ गयी हो |

जैसे हरचरना का फटा सुथन्ना सिल गया हो |

झूठ बोलती हैं ये सड़कें |

 

इन सडकों के मकडजाल में

होरी,धनिया,गोबर,घीसू,माधव को

प्रेमचंद जिस हाल में छोड़कर गए थे

वे इक्कीसवी सदी में भी

कश्मीर से कन्याकुमारी तक

गुजरात से अरुणाचल तक

उसी हाल में हैं |

और विदर्भ में इनके हाल ….?

फिर भी राजधानी में जाकर

ये सड़कें चिल्ला-चिल्लाकर कहती हैं

कि हाल-चाल सब ठीक हैं ,

होरी,धनिया,गोबर,धीसू,माधव

राम,रहीम,अब्दुल,अफजल,कबीर,

रसखान,गरीब-गुरबा,लल्लन.कल्लन 

सब मस्त हैं,

पर वे आज कि हवावों से भी लैस हैं |

 

राजधानी के हुक्मरान ये अच्छी जानते हैं

कि वे हमारी कारगुजारिओं से वाकिफ़ हैं |

और इस मकडजाल से निकलनें के लिए

छटपटा रहें हैं और ये भी जानते हैं कि

ये सड़कें झूठ बोलती हैं |

 

हुकमतें सच और झूठ के जाल को

अपने हाथों में पकडकर ही हुकूमत करतीं हैं |

ताकि सच और झूठ के खेल को अच्छे से खेल सकें |

 

हमें खतरे उठा कर

सड़कों के मकडजाल,

सच और झूठ के खतरनाक खेल ,

सभी कुछ तोड्नें ,

नष्ट करनें,

और खत्म करने होंगे |

 

                                                            -- जुगल

                                                                              22-8-2012

Friday 2 December 2011

ख़ुद को तलाश करता हूँ ....

मुझे बताया गया
वो ही सब कुछ है ,
तुम कुछ भी नहीं |

मुझे बताया गया
हम उसकी मर्ज़ी के बंदे हैं ,
हमारा -अपना कुछ भी नहीं ,
सब उसका है |

इधर -उधर
उधर -इधर
भटकता रहा मै

और
ये जानने की कोशिश करता रहा
कि
वो कौन है ?
और
मै कौन हूँ ?

क्यों कि किसी ने
ये भी कहा था कि
तुम्ही सब कुछ हो |
तुम्ही सब कुछ हो |
क्यों कि
तुम रचते हो इतिहास ,
तुम रचते हो दुनिया ,
तुम करते हो निर्माण
और तुम क्या भूल गए कि
तुम करते हो सृजन |

इस भटकने  में
मैं ख़ुद को भुला बैठा था |

अपना इतिहास ही भूल बैठा था |

इसीलिए लोगो से पूछता रहा कि
मेरी शक्ल का क्या कोई व्यक्ति इधर से गुज़रा था ?
हाँ ,उसने इस सड़क पर
कई चक्कर काटे |
फिर मैं उनसे पूछता हूँ कि
कौन था वो ?
तब,उन लोगो कि भीड़ मे से
किसी ने कहा मुझ से ,
अरे ,
वो कोई और नहीं
तुम्ही तो थे |

मैंने फिर उससे पूछा
मैं कौन हूँ ?
उसने कहा ,
तुम,तुम्ही तो हो |

उसका जवाब
मेरी समझ से परे था |

सोचा ,
ख़ुद से पूछूं कि
मै कौन हूँ ?
और वो कौन है ?

जवाब मिला ,
जो दिखाई देता है
वो तुम हो |
जो नहीं दिखाई देता
वो ,वो है |

ओह !ये इक पहेली सा लगता है |

भटकता हूँ ,
इनसे-उनसे ,लोगो से
बार-बार पूछता हूँ कि
मै कौन हूँ ?

लोग चुप्पी साधे
मुझे देखते रहते हैं,
और
बस देखते रहते हैं
बोलते कुछ भी नहीं |

अपने अन्दर के मकड़जाल को काटकर
ख़ुद तक पहुँचने कि कोशिश करता हूँ |
शायद
वहाँ तक पहुँच कर
मै ये जान सकूँ कि
मै कौन हूँ ?
और
मै वो हो सकूँ ,जो मै हूँ |
और
ख़ुद तक पहुँचकर
ख़ुद से रूबरू हो सकूँ ,
ख़ुद को देख सकूँ कि
मैं हूँ क्या ?
और
मैं कौन हूँ ?

ख़ुद कि तलाश करता हूँ ....

                                                                                                    जुगल
                                                                                                         29-11-2011

Wednesday 19 October 2011

तुम इश्क़ हो ,इश्क़ ...

ये हवाएँ
कुछ अलग हैं ,
न गर्म,
न ठंडी,

कुछ नर्म हैं |

जिस्म को छूकर
रूह तक उतर जाती हैं
और लिपट जाती हैं
कुछ इस तरह
जैसे चाँद से उतर कर
चाँदनी लिपट जाती है
और
तुम्हारे होने का एहसास कराती हैं |

ये एहसास मुझे
इक नगमा सा लगता है ,
जो पहाड़ों की हसीन  वादियों मे ,
हवा के साथ
फिज़ा में तैरता रहता है ,
जिसे केवल सुनने
.....और सुनने का मन करता है |

हाँ ,सुनो ,
इक बात ख़ास...

इन एहसासों की भीड़ में
इन नगमों के जमघट में
मैं ख़ुद को अकेला पाता हूँ
और
तब सब कुछ मेरी समझ से परे होता है ,

और फिर मैं सोचता हूँ

ये तुम हो
या कोई और |

मैं तुम्हारे होने और न होने के जाल  मे फस जाता हूँ
और फिर लगता है की मैं तुम्ही से पूछूं
कि कौन हो तुम !

छलना हो !
दिखती तो हो पर पकड़ नहीं आती
माया हो !
हर तरफ अपने होने का एहसास कराती हो
तितली हो !
जो इधर -उधर फूलों पर भटकती रहती है
जल हो !
जिसे हाथों मे भर नहीं सकता
हवा हो !
जिसे हाथों से पकड़ नहीं सकता
एहसास हो !
जिसे छू नहीं सकता (महसूस कर सकता हूँ )
नगमा हो !
जिसे गुनगुना नहीं सकता (बस सुन सकता हूँ )
मुझमें हो !
जिसे देख नहीं सकता
या ....
नहीं हो !
ऐसा लगता तो नहीं
या...
सब कुछ हो !
सोच कर खुश हो जाता हूँ

नहीं
शायद,तुम इक तिलस्म हो

और फिर लगता है ,
शायद,तुम ,तुम नहीं कुछ और हो
हाँ, शायद भ्रम|

ये छटपटाहट तुम्हें लेकर क्यूँ है मेरे भीतर

कहीं तुम मोहब्बत तो नहीं
पर...
मोहब्बत मे तो मिलना लाज़मी है
लेकिन
तुम मिलती भी तो नहीं हो,
केवल अपने होने का एहसास कराती हो

उफ़!मेरी समझ से परे हो |

हाँ ;जब मैं बंद आँखों से तुम्हें देखता हूँ
तो तुम मुझे आसमान से उतरती
नूर सी लगती हो ,
जो आहिस्ता - आहिस्ता मुझ में उतर जाती है ,
उफ़!मुझे तुम इश्क़ का एहसास लगती हो |
हाँ ,तुम कुछ भी नहीं ,
बस इश्क़ हो |
इसीलिए तुम मुझमें समाती हो
और
मैं
तुममें समा जाने का इंतज़ार कर रहा हूँ |
हाँ,तुम कुछ भी नहीं

तुम इश्क़ हो ,
इश्क़ |...

                                                                                              जुगल
                                                                                                   17-10 2011
केवल अपने होने का

 मोहब्बत मे तो  मिलना  लाज़मी है
लेकिन ,


Saturday 24 September 2011

आधी तो बीत गयी ....

आधी तो बीत गयी

कहते-सुनते
सुनते-कहते
शब्दों के झमेले मे

आधी तो बीत गयी

शतरंज की बिसात पे
काले-सफ़ेद मोहरों से
पिटते-पिटाते
कभी मात देते
कभी मात खाते
हारते-हराते
जीतते-जिताते
चालें हम चलते रहे |

 अब आधी तो बीत गयी

चौसर के पासों को
हाथों में लेकर
युधिष्ठिर और शकुनि बन
ठगते-ठगाते रहे |
हारते-हराते रहे |

आधी तो यूं बीती
हाथ लगा शून्य
पर सार्थक तो कुछ भी नहीं |

सोचता
टहलता हूँ
ख़ुद से फिर पूछता हूँ
क्या करूँ ?
क्या न करूँ ?
कुछ तो बताओ मन !

शतरंज की बिसात पर
मोहरे क्या फिर लगाऊँ ?
या
चौसर के पासों से
महाभारत फिर लिखूँ ?

कुछ तो बताओ मन
आधी तो बीत गयी
हाथ लगा शून्य
पर सार्थक तो कुछ भी नहीं |

अब न तो कोई पांडव हो
जो द्रौपदी को हार जाए
और न हो  कोई कृष्णा
जो छल-कपट से युद्ध करे
और न हो कोई दुःशासन
जो द्रौपदी को नग्न करे |

शतरंज की बिसात से
काले-सफ़ेद मोहरों का खेल
अब बंद हो |
चौसर के पासों को
दूर कहीं फेंक दे |

सृजन के साक्षी बन
अपने पट खोल दें ,
और
नयी रौशनी से
ख़ुद को जगमग करें |

आओ,अब शुरू करें
सब कुछ शुरुआत से |

                                                              जुगल ---24-9-2011